| 7. | उत्सुक ताकती रहती है,,, कर्मो की परिभाषा का,,, शायद उसको ज्ञान नहीं,,, स्रष्टि की अभिलाषा का,,, शायद उसको संज्ञान नहीं,,, हुयी बुजुर्गा तो बैठा दी,,, लाकर इस नुक्कड़ पर,,, रही स्वामिनी जिस घर की,, एक पल में छूटा वो घर,,, चेहरे की झुर्री दर्दो की,,, बोली बोल रही है,,,,, उसकी ये दयनीय दशा,,,, जीवन की सच्चाई खोल रही है,,,, टुकड़े खा,टुकडो को पाला,,,, अब टुकडो पर जीती है,,,, देना देना और बस देना...
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