धृतराष्ट्र के कहने पर विदुर ने पांडवों के वन-गमन का वर्णन किस प्रकार किया ?​

Interview Questions India Languages 1 year ago

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Posted on 18 Jan 2024, this text provides information on India Languages related to Interview Questions. Please note that while accuracy is prioritized, the data presented might not be entirely correct or up-to-date. This information is offered for general knowledge and informational purposes only, and should not be considered as a substitute for professional advice.

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Ghanshyam Tuteehub forum best answer Best Answer 1 year ago
TION:सम्पूर्ण तीर्थों की यात्रा करने पश्चात् विदुर जी हस्तिनापुर आये। उन्होंने मैत्रेय जी से आत्मज्ञान प्राप्त कर किया था। धर्मराज यधिष्ठिर, भीम अर्जुन, नकुल सहदेव, धृतराष्ट्र, युयुत्सु, संजय, कृपाचार्य, कुन्ती गांधारी, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा, कृपी नगर के गणमान्य नागरिकों के साथ विदुर जी के दर्शन के लिये आये। सभी के यथायोग्य अभिवादन के पश्चात् युधिष्ठिर ने कहा - "हे चाचाजी!आपने हम सब का पालन पोषण किया है और समय समय पर हमारी प्राणरक्षा करके आपत्तियों से बचाया है। अपने उपदेशों से हमें सन्मार्ग दिखाया है। अब आप हमें अपने तीर्थयात्रा का वृतान्त कहिये। अपनी इस यात्रा में आप द्वारिका भी अवश्य गये होंगे, कृपा करके हमारे आराध्य श्रीकृष्णचन्द्र का हाल चाल भी बताइये।" अजातशत्रु युधिष्ठिर के इन वचनों को सुन कर विदुर जी ने उन्हें सभी तीर्थों का वर्णन सुनाया, किन्तु यदुवंश के विनाश का वर्णन को न कहना ही उचित समझा। वे जानते थे कि यदुवंश के विनाश का वर्णन सुन कर युधिष्ठिर को अत्यन्त क्लेश होगा और वे पाण्डवों को दुखी नहीं देख सकते थे। कुछ दिनों तक विदुर झि प्रसन्नता पूर्वक हस्तिनापुर में रहे। विदुर जी धर्मराज के अवतार थे। मांडव्य ऋषि ने धर्मराज को श्राप दे दिया था इसी कारण वे सौ वर्ष पर्यन्त शूद्र बन कर रहे। एक समय एक राजा के दूतों ने मांडव्य हषि के आश्रम पर कुछ चोरों को पकड़ा था। दूतों ने चोरों के साथ मांडव्य ऋषि को भी चोर समझ कर पकड़ लिया। राजा ने चोरों को शूली पर चढ़ाने की आज्ञा दी। उन चोरों के साथ मांडव्ठ ऋषि को भी शूली पर चढ़ा दिया गया किन्तु इस बात का पता लगते ही कि चोर नहीं हैं बल्कि ऋषि हैं, राजा ने उन्हें शूली से उतरवा कर अपने अपराध के लिये क्षमा मांगी। मांडव्य ऋषि ने धर्मराज के पहुँच कर प्रश्न किया कि तुमने मझे मेरे किस पाप के कारण शूली पर चढ़वाया? धर्मराज ने कहा कि आपने बचपन में एक टिड्डे को कुश को नोंक से छेदा था, इसी पाप में आप को यह दंड मिला। ऋषि बोले - "वह कार्य मैंने अज्ञानवश किया था और तुमने अज्ञानवश किये गये कार्य का इतना कठोर दंड देकर अपराध किया है। अतः तुम इसी कारण से सौ वर्ष तक शूद्र योनि में जन्म लेकर मृत्युलोक में रहो।" मुनि के शाप के कारण ही धर्मराज को विदुर जी का अवतार लेना पड़ा था। वे काल की गति को भली भाँति जानते थे। उन्होंने अपने बड़े भ्राता धृतराष्ट्र को समझाया कि महाराज! अब भविष्य में वड़अ बुरा समय आने वाला है। आप यहाँ से तुरन्त वन की ओर निकल चलिये। कराल काल शीघ्र ही यहाँ आने वाला है जिसे संसार का कोई भी प्राणी टाल नहीं सकता। आपके पुत्र-पौत्रादि सभी नष्ट हो चुके हैं और वृद्धावस्था के कारण आपके इन्द्रिय भी शिथिल हो गईं हैं। आपने इन पाण्डवों को महान क्लेश दिये, उन्हें मरवाने कि कुचेष्टा की, उनकी पत्नी द्रौपदी को भरि सभा में अपमानित किया और उनका राज्य छीन लिया। फिर भी उन्हीं का अन्न खाकर अपने शरीर को पाल रहे हैं और भीमसेन के दुर्वचन सुनते रहते हैं। आप मेरी बात बात मान कर सन्यास धारण कर शीघ्र ही चुपचाप यहाँ से उत्तराखंड की ओर चले जाइये। विदुर जी के इन वचनों से धृतराष्ट्र को प्रज्ञाचक्षु प्राप्त हो गये और वे उसी रात गांधारी को साथ लेकर चुपचाप विदुर जी के साथ वन को चले गये। प्रातःकाल सन्ध्यावंदन से निवृत होकर ब्राह्मणों को तल, गौ, भूमि और सुवर्ण दान करके जब युधिष्ठिर अपने गुरुजन धृतराष्ट्र, विदुर और गांधारी के दर्शन करने गये तब उन्हें वहाँ न पाकर चिंतित हुये कि कहीं भीमसेन के कटुवचनों से त्रस्त होकर अथवा पुत्र शोक से दुखि हो कर कहीं गंगा में तो नहीं डूब गये। यदि ऐसा है तो मैं ही अपराधी समझा जाउँगा


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